Wednesday 4 June, 2008

काफ़ी दीन beet गए कुछ लीखा नही सोचा की आज इस आवारा ज़िंदगी को एक और पन्ना दे दे। यूं तोःबहुत कुछ है बताने क लिए पर इस लुक्खे की सुनता कौन है। फ़ीर से दोस्तो की इन्यात सहेज रहा हूँ, पता नही ये एहसान कब पुरा कर पाउँगा, वैसे दोस्ती क नाम पर एक शेर अर्ज़ है ,

इनके बिना है एक बंजर रेगिस्तान ज़िंदगी
साथ अगर हैं तोः फ़ीर फासला क्यों है।

अलवीदा

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